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‘मौत’ के मुहाने पर जिंदगी की ये कैसी जिद? अनियोजित निर्माण ने ही बढ़ाया जानमाल का जोखिम

प्राकृतिक आपदाओं को रोका नहीं जा सकता है। उत्तरकाशी के धराली में आई जलप्रलय प्रकृति के इसी रुख का परिणाम है। भौगोलिक और पर्यावरणीय दृष्टि से अति संवेदनशील उत्तराखंड में ऐसी आपदाएं आती रहेंगी। जरूरत है तो बस इनसे बचने की या इनके प्रभाव से महफूज रहने की। यह तभी हो पाएगा, जब हम प्रकृति के साथ तालमेल बनाते हुए संवेदनशील क्षेत्रों और नदियों, गाड़-गदेरों से मानक दूरी बनाकर निर्माण करें। अफसोस कि हमारे राज्य में आपदा से पूर्व की एहतियात सिरे से नदारद नजर आती है। जलप्रलय से धराली का जो हिस्सा तबाह हुआ है, वह न सिर्फ क्षीर गंगा के बेहद करीब था, बल्कि घरों, होटल और होम स्टे आदि के निर्माण से भरा हुआ था। यदि निर्माण दूर होते तो शायद जानमाल का जोखिम न होता और प्रकृति का रौद्र रूप दूर से ही निकल जाता। केदारनाथ आपदा में भी अनियोजित निर्माण ने ही जानमाल के जोखिम को बढ़ा दिया था। हम तब भी नहीं चेते और अब धराली के रूप में हमारी भूल बड़े दर्द का फिर से कारण बन गई है। हरिद्वार, ऋषिकेश से लेकर भागीरथी, अलकनंदा, भिलंगना या अन्य किसी भी नदी क्षेत्रों के हाल देख लिया जाए तो सभी जगह मौत के मुहानों पर जिंदगी की जिद की दास्तां नजर आती है।

100 मीटर दूरी का नियम 30 मीटर पर सिमटा, लेकिन निर्माण बढ़ते जा रहे
बिल्डिंग कोड का सामान्य नियम है कि 30 डिग्री से अधिक ढाल पर निर्माण करना मतलब जोखिम को बढ़ाना है। बावजूद इसके अधिक ढाल पर न सिर्फ निर्माण किए जा रहे हैं, बल्कि उन्हें समतल कर बहुमंजिला भवन भी खड़े कर दिए जा रहे हैं। पर्यटन विकास के नाम पर रिवर व्यू की जिद में नदियों के बेहद करीब तक भी होटल, होम स्टे और गेस्ट हाउस आदि खड़े कर दिए जा रहे हैं। पूर्व में सिंचाई विभाग का नियम था कि मुख्य नदियों से 100 मीटर की दूरी तक कोई निर्माण नहीं किया जाएगा। लेकिन, तमाम मामले कोर्ट पहुंचे और अब इसे 30 मीटर तक सीमित करने की बात सामने आ रही है। हालांकि, धरातल पर 30 मीटर का नियम नदारद है।

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